Wednesday, November 11, 2009

सभी कर्मचारी सच्चे

हमारी कम्पनी में काम करने वाले सभी कर्मचारी सच्चे है। वफादार हैं और सबके प्रति सद्भावना से भरे हैं। हम सब अपने एवं परस्पर विकास, कल्याण औ समृद्धि की जंजीर से मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से जुड़े हैं। मैं अपने सहकर्मियों और कम्पनी के बाकी लोगों के लिए अपने विचारों, शब्दों और कार्र्यों में प्रेम, शांति, सद्भावना प्रसारित करता हंू। हमारी कम्पनी के सभी अधिकारी, उच्चाधिकारी और सहकर्मियों सहित मुझे सभी कामों में ईश्वर का मार्गदर्शन मिल रहा है। मेरे अन्तर्मन की असीमित बुद्धिमता मेरे द्वारा सारे निर्णय लेती है। मेरे सभी सहयोगियों के पारस्परिक सम्बंधों में सद्भाव निहित है। मैं ऑफिस में जाने से पहले शांति, प्रेम और सद्भावना के संदेशवाहक भेज रहा हंू। कम्पनी में काम करने वाले सभी लोगों के दिलोदिमाग में शांति और सद्भावन कायम रहे जिनमें मैं भी शामिल हंू। मैं आपके प्रति विश्वास और भरोसे के साथ एक नए दिन की शुरुआत करने जा रहा हंू। शांति, सद्भाव और संतुलन हर समय मेरे मस्तिष्क तथा अन्तर्मन पर शासन करते हैं।

Saturday, October 31, 2009

धमाकों के धुंए से बदरंग हुई गुलाबी नगरी

देखते ही देखते गुलाबी नगरी का रंग बदल कर कालीमा सा हो गया। धुंए के गुबार ने नील गगन को ढांप लिया। शाम ढल चुकी थी, अंधियारे में सिर्फ धधकते शोले ही अहसास करा रहे थे कि कुछ अनहोनी हुई है। रफ्ता-रफ्ता हर तरफ खबर फैल गई। न केवल अनहोनी हो चुकी थी, बल्कि उसके विकराल रूप से भी सामना हो गया। धमाके दर धमाकों की गूंज ने करीब शहर के दस किलोमीटर तक के इलाके के गूंजा दिया। जहां धमाके हुए वहां के हालात की थाह पाना अब तक किसी के बस में नहीं। महज कयास के आधार पर बयानबाजी हो रही है। आज रविवार है सीतापुरा स्थित आईओसी के ऑयल टर्मिनल में गुरुवार शाम को लगी आग अब भी धधक रही है। कब तक ये शोले उठते रहेंगे इसका हर अनुमान बेमानी साबित हुआ। धू-धू कर जलते ऑयल टैंक से निकल रही ज्वाला और धुंए का गुबार बयां कर रहे हैं कि आने वाले बारह घंटे और दहशत भरे होंगे।गुरुवार को अचानक आईओसी के ऑयल डिपो में आग लग गई। देखते ही देखते धमाकों की गूंज सुनाई देने पड़ी। डिपो के भीतर के हालात तो भीतर रह गए लोगों के साथ ही फना हो गए। डिपो के बाहर करीब तीन किलोमीटर तक की परिधि के आवासीय क्षेत्र में रह रहे लोगों ने जैसे-तैसे जान बचाई। लोग बस दौड़ते गए। पता तक नहीं चला कि कितने किलोमीटर दूर निकल आए हैं। थक कर गिरने लगे तब कही जाकर रुके उनके कदम। यह सब वाकया चंद पलों में घटित हुआ। लेकिन इसके बाद धधक रही आग अब भी विकराल रूप लिए हुए है। ऑयल डिपो के 11 टैंकों में से सात का ऑयल खत्म होने पर आग भले ही थमने की ओर है पर चार टैंक अब भी ज्वालामुखी की तरह आग के गोले उगल रहे हैं। हां, शहर के हालात जरूर सामान्य हुए हैं। लेकिन जिनका घर-बार तबाह हो गया वे मुफलिस की तरह या तो सड़क किनारे पड़े हैं या कही आसारा लिए हुए हैं।

Friday, October 23, 2009

प्लीज मुझे इन सवालों के जवाब दें

1. लोग मरने के लिए ट्रेन के आगे ही छलांग क्यो लगाते हैं। ट्रक या बस के आगे क्यूं नहीं लगाते।
2. लोग मरने के लिए विषाक्त पदार्थ या जहर ही क्यों खाते हैं मिठाई क्यो नहीं खाते।
3. लोग दूसरों का बुरा करने के लिए गलत तरीका ही क्यों अपनाते हैं प्रेम से क्यों नहीं मारते।
4. धरती पर भगवान को पाने की लालसा होती है तो लोग स्वर्ग से नीचे ही क्यों आते हैं।
5. किसी ऐसे शख्स का नाम बताएं जो स्वर्ग की बजाय नरक गया हो।
6. किसी ऐसे प्राणी का नाम बताएं जो मौत से कभी न घबराता हो।
सादर...यमदूत

Monday, October 12, 2009

हम क्या कर रहे नहीं पता

यह बात सुनने में भले ही अजीब लगे कि दुनिया क्या कर रही है भारत में रहने वाले भद्र लोगों को पता है, लेकिन कोई उनसे जरा यह पूछ ले कि भारत क्या कर रहा है तो वे बगलें झाकने लगेंगे। कोई ज्यादा समझदार हुआ तो अनर्गल तर्क कर खुद को सही साबित करने से बाज नहीं आएगा। यहा बात घर-गृहस्थी की नहीं हो रही। मामला सीधे तौर पर राष्टï्रीय अस्मिता से जुड़ा हुआ है। देश कि सुरक्षा, आतंकवाद, विश्व व्यापार, विदेश नीती, परमाणु प्रसार सरीखे अनेक मसले बीते कई साल से अबूझ पहेली बने हुए हैं। देश में शासन कर चुकी और शासन कर रही वर्तमान सरकार तक इन मसलों पर कुंडली मारे हुए है। कोई इन मामलों पर सीधी सट्टï बात नहीं करता। इन मसलों पर यदा कदा आने वाले बयान सटीक कम और भरमाने वाले ज्यादा होते हैं। दुखद पहलू तो यह है कि आतंकवाद पर अमरीका क्या कर रहा है, पाकिस्तान को क्या करना चाहिए, चीन से कोई परेशानी नहीं, सब ठीक है सरीखे वक्तव्य जारी कर भारतीय राजनेता व सत्ताधारी दल यह जताने का जतन करने से नहीं चूकते कि वे सजग और सक्रिय हैं। कोई यह बताने का दुस्साहस नहीं करता कि इन सब मसलों पर भारत का एजेंडा क्या है। भारत क्या कर रहा है। भारत क्या करेगा। आज भारतीय जनता यहां के राजनेताओं के विश्व संबंधी सामान्य ज्ञान जानने नहीं बल्कि सच्चाई जानने को व्याकुल हैं। दुख तब होता है जब नेता देश में कुछ और और विदेश में जाकर कुछ और ही बयान देते हैं। यहा हमारी नीतियों को मजबूत बताते हुए शेर की सी दहाड़ निकालते हैं और बाहर जाते ही टें बोल जाते हैं। जरूरत पडऩे पर भी अमरीका व चीन के खिलाफ बोलने से कन्नी काटना, पाकिस्तान से आतंकवाद मसले पर दो टूक बात का माद्दा नहीं होना हमारे राजनेताओं को कटघरे में खड़ा कर रहा है। राजनेताओं की यही नपुंसकता हमें मानसिक गुलामी की ओर ले जाती दिख रही है।

Friday, October 9, 2009

यह नोबेल पुरस्कार बला क्या है

हमारे बराक भैया को विश्व में शांति के प्रयासों के बदले शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने की घोषणा क्या हुई समूचे विश्व में भूचाल सा आ गया। कुछेक को छोड़ दो तो सभी उन्हें नोबेल से नवाजे जाने की आलोचना करने में जुट गए। अरे हम कहते हैं गर किसी और में दम था तो वो लेकर दिखा देता नोबेल। किसी ने रोड़े थोड़े न अटकाए थे। भैया को मिल गया तो भाई लोगों के पेट में मरोड़ उठने लगे। मान लिया कि अभी भैया पूरे विश्व में शांति स्थापित करने में रत्ती भर भी सफल न हुए हों, पर उन्होंने सपना तो देख ही लिया है। आज नहीं तो कल उधमियों को शांत कर देंगे। वे तो साफ सुथरे कूटनीतिक हैं। ठीक उसी तर्ज पर काम करते हैं गरीब नहीं गरीबी हटा दो, यानी जहां जहां अशांति हों वहां अमरीकी सेना भेज कर अशांति फैलाने वालों को नामोनिशान मिटा दो। वे ऐसा कर भी रहें हैं। चा हे इरान का मसला हो या अफगानिस्तान का, पाकिस्तान में तालिबान हो या इजराइल में फिलस्तीन के आतंक का, हर जगह तो फांस बनकर चुभ रहे हैं हमारे बराक भैया। माफ करना हमारे पुरखे कह गए हैं कि गेंहू के साथ घुन तो पिसते ही हैं ऐसे में शांति लाने के प्रयास में यदि थोड़ी बहुत अशांति करनी पड़े तो इसमें कोई बुराई नहीं। फिर भी किसी में दम है तो भैया से नजर मिलाकर बोले कि उन्हें नोबेल पुरस्कार लेने का हक नहीं। सामने आने पर खुद बोलने वालों की घिग्घी बंध जाएगी। और फिर भैया ने तो नहीं कहा था कि उन्हें नोबेल चाहिए, खुद ही देने वाले बांट गए तो वे क्या करें। उन्हें तो खुद सुबह उस समय पता चला जब वे सोकर उठे। पीए ने बताया था साहब आपको नोबेल पुरस्कार मिला है। बाद में पता करवाया कि यह नोबेल पुरस्कार बला क्या है।

Monday, October 5, 2009

योग्यता जितना घमण्ड तो होना ही चाहिए

आप में जितनी योग्यता है उतना आपको खुद पर घमण्ड होना ही चाहिए। यह घमण्ड ही आपको योग्यता के अनुरूप सम्मान दिला सकता है। हां, यह ख्याल जरूर रखें की यह घमण्ड किसी की भावनाओं को आहत करने के लिए न हो। वक्त जरूरत व्यक्ति का ओहदा व योग्यता ही समाज, आफिस व अन्य सार्वजनिक स्थलों पर उसे अन्य लोगों से अलग पहचान दिलाता है। इस पहचान को स्थाई रखने व इसमें निरन्तर बढ़ोतरी के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। यही व्यक्तिगत प्रगति की निशानी है। काम व योग्यता के अनुरूप खुद के आचार-व्यवहार को नहीं ढालने से अन्य लोग या तो गाहे-बगाहे आपका उपहास बनाएंगे या आपको मूर्ख समझेंगे। वे घमण्ड न करने पर आपके साथ हल्का व्यवहार भी कर सकते हैं। इससे अनत: आप खुद को अपमानित ही महसूस करेंगे। इतना ही नहीं आपसे कम योग्यता वाले भी आप पर हावी होने से गुरेज नहीं करेंगे। इसलिए झूठी और पुरानी परम्पराओं को त्यागें और जमाने के साथ जमाने जैसा चलने की आदत बनाएं। जमाना बदल चुका है। इसे आपने नहीं उन बहुसंख्य लोगों ने बदला है जो ऐसा व्यवहार पाने के आदी हैं।

Sunday, September 27, 2009

रावण का दहन एक दिन पहले

देशभर में भले ही दशहरे पर रावण दहन होता हो, लेकिन मध्यप्रदेश के जबलपुर में पंजाबी ङ्क्षहदू समाज एक दिन पहले ही दशहरा पर्व मनाता है। इसी दिन रावण व कुभकर्ण के पुतलों का दहन कर दिया जाता है। पिछले ५९ साल से एक दिन पहले दशहरा मनाने की यह परम्परा कायम है। इस बार रावण का पुतला पचास फीट ऊंचा बनाया गया।

Sunday, September 20, 2009

विश्व अलजाइमर्स दिवस आज

भारत में बुजुर्र्गों को होने वाले अलजाइमर्स रोग से पीडि़तों की संख्या ङ्क्षचताजनक रूप से ३० लाख के आसपास पहुंच गई है और वर्ष २०२० तक पूरे विश्व में इसके रोगियों की संख्या के ३ करोड़ तक पहुंच जाने की आशंका है। चिकित्सकों के अनुसार इस बीमारी के लक्षणों में यादाश्त की कमी होना, निर्णय न ले पाना, बोलने में दिक्कत आना शामिल है। रक्तचाप, मधुमेह, आधुनिक जीवनशैली और सिर में कई बार चोट लग जाने से इस बीमारी के होने की आशंका बढ़ जाती है। अमूमन ६० वर्ष की उम्र के आसपास होने वाली इस बीमारी का फिलहाल कोई स्थाई इलाज नहीं है। हालांकि बीमारी के शुरुआती दौर में नियमित जांच और इलाज से इस पर काबू पाया जा सकता है। मष्तिष्क के स्नायुओं के क्षरण से रोगियों की बौद्धिक क्षमता और व्यावहारिक लक्षणों पर भी असर पड़ता है। आज यानी 21 सितम्बर को विश्व अलजाइमर्स दिवस मनाने का दिन है। आओ हम अपने बुजुर्र्गों की सार संभाल की शपथ लें उन्हें इस रोग से बचाने की दिशा में एक कदम बढ़ाएं।

ठहाके लगाना तो दूर, हंसना भी भूल गए

इंसान की उम्र जैसे-जैसे ढलान की ओर जाती है उसकी कई आदतों, आचार-व्यवहार व गुणों में परिवर्तन होता जाता है। उम्र की इसी ढलान में खोती जाती है उसकी खुशी। यूं कहने को तो कभी कभार चेहरा खिला और होठों पर मुस्कुराहट का आभास नजर आ जाता है। लेकिन इस सबमें नैसर्गिगता की बजाय कृत्रिमता का प्रतिशत बढ़ जाता है। गाहे बगाहे ठहाके लगाना तो दूर की बात रही खिलखिलाकर कर हंसना भी वह भूल सा गया है। कभी हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाया करते थे वे दिन अब लद गए। अब तो ठहाके के लिए भी प्रशिक्षण केन्द्रों में जाकर अभ्यास की जरूरत पडऩे लगी है। हम भी हंसना भूल ही गए थे, लेकिन आज जमकर हंसे, मन तो ठहाके लगाने का था पर शरीर ने साथ नहीं दिया। पेट और सीने में दर्द होने लगा। हंसी थमी तो फिर उसी नीरसता के वातावरण में खुद को पाया।

Saturday, September 19, 2009

मेरा बेटा भी बहुत शरारती है

बच्चों की शरारत पर बड़ों का खफा होना लाजमी है। लेकिन इसके साथ बड़ों को यह भी सोचना होगा कि वे बड़े हैं इसलिए उन्हें खफा होने का यह अधिकार नहीं मिल गया। बच्चों की छोटी-बड़ी बातों पर हाथ उठा देना, डांटना या अन्य कोई सजा देना किसी भी लिहाज से उचित नहीं। बच्चे जो कुछ भी करते हैं वह उनकी तात्कालिक परिस्थिति, अर्जित ज्ञान व अधिकार पर निर्भर करता है। इसे लिए एक उदाहरण हैं... कई बार घर में मेहमान आए हुए हों, आप उनसे बात में व्यस्त रहें, इसी बीच बच्चा कोई सवाल बार-बार आपसे कर रहा है तो खीज आना स्वाभाविक है। लेकिन तब आप यह भूल जाते हैं कि बच्चे के लिए मेहमानों का आना उतना विशेष नहीं होता जितना आपके लिए। लिहाजा बदलना आपको होगा। बच्चा जिस अधिकार के साथ आपके पास आता है उसी जिम्मेदारी के साथ उसकी बात का जवाब देना जरूरी है। चाहे इसके लिए कुछ पल मेहमानों पर से ध्यान हटाना ही क्यों न पड़े। इसी तरह कई बार आप कोई फिल्म देख रहे हों उसी दौरान बच्चा शोर कर रहा हो तो उसे डांटे नहीं। उसे नहीं मालूम की फिल्म कोई मनोरंजन की चीज है। उसे तो शोर करने में ही ज्यादा मनोरंजन का अहसास हो रहा होता है। इस हालात में सेक्रीफाइज आपको ही करना है। न कि बच्चे को डांट कर दबाने का प्रयास करें। समय-समय पर बच्चों की स्कूलिंग के जरिए ही हम उनके आचार-व्यवहार में बदलाव ला सकते हैं, उसे समझा सकते हैं। कोई जोर आजमाईश करने से बच्चा जिद्दी हो सकता है। इसलिए बच्चों की मनावृत्ति को समझे, पढ़े, जाने और उसके अनुरूप ही कदम उठाए। यह मेरा सुझाव है। क्योंकि मैं भी एक पिता हूं। मेरा नन्हा बेटा भी बहुत शरारती है।

Wednesday, September 16, 2009

मैं गांधी तो नहीं

'करे कोई भरे कोई' सांसारिक जीवन में इस हालात से हर वह शख्स गुजरा होगा जिसने सदैव दूसरों के प्रति सहृदता रखी होगी। बाद में परिणामों ने आईना भी दिखा दिया होगा कि उसने कितनी बड़ी भूल की। लेकिन आदमी की फितरत को बदला नहीं जा सकता। इसी सहृयता के एक बुरे परिणाम से हाल ही मेरा भी सामना हो गया। यूं कह सकते हैं दूध से जल गया अब छाछ भी फूंक-फंूक कर पीने को जी चाहता है। सहृदता छोड़ पाऊंगा इस बारे में अभी कुछ नहीं कह सकता। लेकिन मैं गांधी भी नहीं कि कोई गाल पर एक थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके सामने कर दें। गांधीजी वाकई बड़े दिल वाले थे। काश मेरा दिल भी उतना बड़ा हो जाए। बहरहाल जिस गलती के चलते मुझे जिल्लत उठानी पड़ी उसके लिए मैं स्वयं को कतई जिम्मेदार नहीं मानता, खुद गलत नहीं था, बस यही बात मेरा मनोबल बनाए हुए हैं। काश मैं हनुमान होता तो दिल चीर कर दिखा देता।

Sunday, September 13, 2009

वह तो सिर्फ जेबतराश बाकि तो लुटेरे हैं

यह वाक्या रविवार रात करीब तीन बजे का है। चाय पीने के लिए कार्यालय के सामने स्थित बच्चों के सरकारी अस्पताल की केंटिन तक गए थे। परिसर के भीतर प्रवेश किया ही था कि शोर सुनाई दिया। पकड़ो, पकड़ो भागने न पाए। आस-पास सोए लोग भी जग गए। पकड़ लिया गया वो बेचारा। टूट पड़े कई लोग उस पर। जेब से कुछ रुपए भी निकल आए। वह कोई और नहीं, एक जेबतराश था जो रात के सन्नाटे में शिकार पर हाथ साफ करता था। इस सबके बीच एक बात हमें अलहदा नजर आई। जेबतराश की जेब से रुपए भले ही कुल जमा तीन-चार सौ निकले हों, लेकिन यह चिल्लाने वाले कि मेरी भी जेब से रुपए गायब है कहने वाले बीसियों हो गए। कोई बोला पांच सौ तो कोई हजार के पार बताने लगा। हम समझ नहीं पा रहे थे कि जेबतराश तराश के पास कुल जमा तीन चार सौ रुपए निकले तो बाकि लोगों के रुपओं पर किसने हाथ साफ कर दिया। खैर हम आगे बढ़ गए। चाय कि दो चार चुस्की ही ली थी कि इसी बीच पास की कुर्सी पर आकर दो सज्जन बैठ गए। वे आपस में कुछ बतिया रहे थे। पहले तो हमरा ध्यान उनकी तरफ नहीं गया लेकिन जैसे ही जेबतराश वाली घटना उनकी जुबां पर आई हमारे कान खड़े हो गए। उनमें से एक बोल रहा था, अरे यार उसकी जेब से माल ही कम निकला नहीं तो हमारे भी वारे-न्यारे हो जाते। हल्ला सुनकर पहुंचने में कुछ देरी हो गई थी। बस! माजरा हमारी समझ में आ गया। वो बेचारा तो एक जेबतराश था, भीड़ में कई ऐसे सफेदपोश शामिल थे, जो जेब सलामत होने के बावजूद जेब कटने का शोर मचाने में आगे थे। उन्हें आशा थी कि जेबतराश से बरामद रुपओं में से उनके हाथ भी कुछ लग जाता। बहरहाल जेबतराश भी यह सोच रहा होगा कि जब उसने इतने लोगों की जेब ही साफ नहीं की तो फिर कौन यह कारनामा कर गया। आज तो उसके अलावा और कोई साथी यहां नहीं आने वाला था।

Saturday, September 12, 2009

ईश्वर है या नहीं इसमें नहीं उलझे, बस विश्वास करें

ईश्वर को लेकर इस सांसारिक जगत में लोगों के अपने निजी अनुभव, विचार, मत, दावे व सोच है। मैने भी इस सत्य को जानने का प्रयास किया। कितना सफल हो सका यह मै खुद नहीं जानता। प्रयास जारी है। ईश्वर के बारे में चर्चा के दौरान ही एक बार एक शख्स ने मुझे एक रामबाण औषधि रूपी बात कह दी। वह बात सभी तक पहुंचाने की जिज्ञासा बनी रहती है। इसी क्रम में आज आप लोगों को भी बता दूं कि वह रामबाण क्या था। यानी ईश्वर पर उस तरह विश्वास करो जिस तरह एक अबोध बालक मां पर करता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। तीसरी मंजिल की छत से एक मां अपने नवजात को हाथ से पकड़ कर नीचे की ओर लटकाए हुए थी। आप और हम को यदि कोई इससे भी कम ऊंचाई से नीचे झांकनेभर को कह दे तो शरीर में सिरहन दौड़ जाती है। लेकिन वह नवजात नीचे लटके हुए भी मुस्कुराता रहता है। उसे नीचे गिरने का खौफ नहीं होता। उसे विश्वास है मां के चलते मुझे कोई डर नहीं। ठीक उसी तरह ईश्वर पर विश्वास करो। हर भय, राग, द्वेष मिट जाएगा। उसकी सत्ता को माने या ना माने लेकिन उसके होने का अहसास भर भी हमें इस सांसारिक जगत में उत्तम व वैभवपूर्ण जीवन बिताने में सहायक सिद्ध होगा। अब बात यह आती है कि ईश्वर के प्रति लगन कैसे लगाई जाए तो इसके लिए उसी भद्र व्यक्ति का दिया फार्मूला आपके बीच बांटना चाहता हूं जो इस तरह है।
'हे परमपिता, यद्यपि मैने आज तक आपको पुस्तकों, संतों एवं शास्त्रों तथा वचनों के माध्यम से जाना है, किन्तु आपकी व्यक्तिगत अनुभूति नहीं की। मेरे मन की अभिलाषा है कि आपको आपके वास्तविक रूप में अनुभूत कर सकूं। हे पिता शीघ्र ही मुझे अनुभूति कराएं।'

Friday, September 11, 2009

कड़की में काम आते टोटके

यूं टोटकों के बारे में हर आम-ओ-खास को जानकारी रहती है। हर कोई बचना चाहता है इनसे। न जाने क्या अला बला पीछे लग जाए। खासकर चौराहों पर तो बड़े ध्यान से निकलना पड़ता है। उस पर रात हो तो ये टोटके किसी भूत पिशाच से कम नहीं लगते। दूर से नजर पड़ जाए तो रास्ता बदल लेने से गुरेज नहीं करते लोग। बहरहाल हम यहां टोटकों का परिचय कराने के मूड में नहीं हैं। हम तो बस इतना बताना चाहते हैं टोटके औरों के लिए भले ही बुरे-भले होते हो लेकिन हमारे लिए तो कड़की के दिनों में बड़े लाभकारी साबित हुए हैं।टोटके लाभकारी कैसे बने इसकी दास्तां भी कुछ कम रोचक नहीं हैं। हमें यह नुस्खा करीब दस-बार साल पहले विरासत में मिला था। लिहाजा इसे आगे बढ़ाने का प्रयास भर कर रहे हैं। बात तब कि है जब हम कॉलेज के दिनों में पढ़ाई के साथ-साथ एक ट्रेडिल पर छपने वाले वाले छोटे से अखबार के लिए भी काम किया करते थे। तनख्वाह के नाम पर कभी कभार बख्शीस की तरह जेब खर्च मिल जाया करता था। ऐसा नहीं है कि सीनियर्स कोई मोटी तनख्वाह पाते हों, उनकी भी हालत काम चलाऊ से ज्यादा हमे कभी नजर नहीं आई। हमेशा की तरह गर्मी की एक रात सीनियर्स गपशप में मशगूल थे। तभी किसी ने शिकंजी की बात छेड़ दी। बात-बात में सभी का मन हो आया कि आज शिकंजी ही पिएंगे। रात के बारह बज रहे हैं ऐसे में शिकंजी कहां मिलने वाली। तभी हमें एक सीनियर साथी ने कहा जाओ जरा आस-पास के चौराहों का फेरा लगा आओ। देखना कहीं टोटके रखे हो तो उलट पलट कर उन्हें देख लेना। एकआध नींबू तो मिल ही जाएगा। टोटके का नाम सुनते ही हमारे रोंगटे खड़े हो गए। पर क्या करें बड़ों का आदेश मानना ही था, एक और जूनियर साथ को साथ लेकर चल दिए टोटकों की खोज में। पहले एक चौराहे पहुंचे, टोटके को देखते ही घिग्घी बंध गई। जैसे तैसे टोटके को टटोला तो उसमें लाल कपड़े में बंधे दो नींबू साथ ही सवा रुपए भी मिल गए। लौटे तो सीनियर्स ने पूछा नींबू लाए हो। हमारा जवाब हां में था। उन्होंने नींबू निचोड़े और शिकंजी तैयार। बस उस दिन की घटना ने हमारे भाग्य जगा दिए। गर्मी में रात बिरात कभी शिकंजी की जरूरत हो तो चौराहे सलामत। चाय के लिए जेब में चव्वनी न हो तो चौराहों का फेरा।

Thursday, September 10, 2009

दिल्ली के रामलीला वालों से हमदर्दी

दिल वालों की दिल्ली में बीते कई दिनों से रामलीला को लेकर महाभारत मची है। रामलीला के जरिए खाने कमाने वालों और दर्शकों का दर्द यह है कि दिल्ली सरकार ने नवरात्रा के दौरान होने वाली रामलीला मंचन का समय घटाकर रात दस बजे तक तय कर दिया। अब वे हमेशा की तरह रात के बारह बजे तक इसका आनंद नहीं उठा सकते। रामलीला का समय कम करने का तुगलकी फरमान दिल्ली पुलिस की सलाह पर ही राज्य सरकार ने जारी किया है ऐसा सरकार ने भी माना है। दीगर बात यह है कि कानून व्यवस्था बनाए रखने नाम पर रामलीला को दायरे में लाना रामलीला वालों को रास नहीं आ रहा। उनका तर्क भी जायज है। रामलीला कोई का घटनाक्रम कोई एडिट कर मंचित करने की चीज नहीं जिसके प्रसंग घटा दिए जाएं। नवरात्रा के निर्धारित दिनों में इसके समय में कटौती किए जाने से तय अवधि में इसका पूर्ण मंचन हो पाना संभव नहीं। ऐसे में रामलीला के दौरान या तो रावण वध नहीं हो पाएगा या फिर राम अयोध्या नहीं लौट पाएंगे।
भई हमें तो दिल्ली की कांग्रेस सरकार के नए फरमान में भी राजनीति की बू आने लगी है। सत्ता पर काबिज सरकार शायद यह नहीं चाहती की रामलीला के नाम पर लोग राम को याद करें। राम का नाम पूरे नौ दिन तक लोगों की जुबां पर होगा तो इसका लाभ प्रतिपक्षी पार्टी को मिलता है। इससे राजनीतिक वातावरण में राम समर्थकों की पार्टी की रेंटिंग बढ़ जाती है। प्रतिपक्षी पार्टी के नेता फीता काटने के बहाने ही अपना जनाधार बढ़ाने के लिए वहां पहुंच जाते हैं। यह स्थिति सत्ताधारी पार्टी के लिए किसी हाजमा खराब करने से कम नहीं होती। उसका बस चलता तो वह तो पूरी रामलीला ही प्रतिबंधित कर देती। यानी कि न रहे बांस न बजे बांसुरी। संभल जाओ रामलीला वालों! अभी पहला तीर चला है। आगे-आगे देखो होता है क्या। दिल्ली वालों मुझे आपसे से पूरी हमदर्दी है। हो भी क्यो नहीं, जीवन के करीब 18 महीने मैने भी दिल्ली में बिताए हैं। मेरे योग्य सेवा हो तो बताना। रामजी आपकी भली करें।

Wednesday, September 9, 2009

यमलोक में हाहाकार

नरक के विशेष सूत्र से खबर लीक हुई है कि धरती पर सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही जनसंख्या से यमलोक के कर्ताधर्ता यमराज परेशान चल रहे हैं। चौकिए मत, यह सुनकर तो किसी कि पेशानी पर भी बल पड़ सकते हैं। आखिर यमलोक का धरती की जनसंख्या बढऩे से सम्बंध क्या है? अरे भई सीधी सी बात है धरती पर बढ़ी जनसंख्या को एक न एक दिन यमलोक जाना ही है। ऐसे में इस विशाल पॉपुलेशन को एडजस्ट करने की समस्त जिम्मेदारी यमराज की ही तो बनती है। पता चला है कि पहले से यमलोक में जमा लोग, खासकर धरती पर बड़े कालेकांड करके पहुंचे तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता ह्यूमन राइट्स का हवाला देकर अपने लिए यथोचित स्थान मुहैया कराने की मांग पर अड़े हुए हैं। उनका यमराज से कहना है कि जब लेकर आए हो तो रहने के लिए पर्याप्त स्थान तो देना ही पड़ेगा।दीगर बात है कि मामले की गंभीरता और यमलोक में जगह को लेकर मचे हाहाकार को काबू में करने के लिए भगवान विष्णु ने एक फार्मूला भी लगाया। उन्होंने धरती के वासियों की औसत उम्र बढ़ा दी थी। हालांकि वे भी जानते थे इससे होने जाने वाला कुछ नहीं। चंद दिनों में ही यह राहत भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो जाएगी। हुआ भी यही कुछ दिन तो यमलोक में आवक कम हो गई लेकिन बाद में हालत वही ढाक के तीन पात।धरती से लाए जाने वाले लोगों के कारण यमलोक में स्थान बंदोबस्त करते करते यमराज भी थक गए। खासकर नरक में तो तिल रखने जितनी भी जगह नहीं बची, जैसे तैसे ठूंस कर काम चलाना पड़ रहा है। उस पर नेता, अधिकारी, भ्रष्टाचारी की पहुंची जमात ने नाक में दम किया हुआ था। वे धरती पर किए गए पाप के मुताबिक ज्यादा से ज्यादा लेने पर अड़े थे। अपुष्टï सूत्रों के अनुसार एकबारगी तो यमराज ने सोचा क्यों न देवलोक के अन्य देवताओं से बातचीत कर स्वर्गलोक के कानून कायदों में थोड़ा बदलाव करवाया दिया जाए ताकि कुछ पापी उधर शिफ्ट हो जाएं। लेकिन यह यह बात भी परवान चढऩे से पहले उनके दिल में ही घुट कर रह गई। आखिर उन्होंने ठान ही लिया कि येनकेन प्रकारेण वे बढ़ती जनसंख्या के अनुरूप स्थान का बंदोबस्त करवाने का दबाव अन्य देवताओं पर बनाना ही पड़ेगा।सूत्र बताते हैं कि परलोक के सदन में चर्चा के दौरान भी यमराज ने नरक में बढ़ रही संख्या का मामला पूरे जोरशोर से उठाया था। उन्होंने सीधे-सीधे आरोप मढ़ा कि वाहवाही लूटने के चक्कर में ब्रह्मïा और विष्णु धरती पर जनसंख्या वृद्धि को बढ़ावा दे रहे हैं। दोनों के पास धन-धान्य समेत अन्य संसाधनों की कोई कमी नहीं है। इसलिए दोनों को कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इतने लोगों के लिए यमलोक में स्थान का बंदोबस्त करने में पसीना मुझे ही बहाना पड़ता है। मेरे एकमात्र हेल्पर चित्रगुप्त की कमर भी हिसाब किताब रखते-रखते कुबड़ा चुकी है। काम के घंटे बढ़ जाने से यमदूत काम छोड़कर भाग जाने की धमकी देने लगे हैं। कहते-कहते यमराज आपे से बाहर हो गए। उन्होंने यह अल्टीमेटम तक दे डाला की यमलोक की जनसंख्या के लिए स्थान की कमी पड़ी तो वे भी स्वर्गलोक पर आक्रमण कर जमीन हथियाने से पीछे नहीं हटेंगे। यह सुनते ही अन्य देवता गण भौचक रह गए। यह बात अलग है कि यमराज के ये बयान सदन की कार्रवायी में शामिल नहीं किए गए। हां, अध्यक्षजी ने इतना जरूर किया कि शनि महाराज के नेत़ृत्व में एक समस्या समाधान कमेटी गठित कर दी। इस कमेटी में राहू और केतू को बतौर विशेषज्ञ शामिल किया गया और नारद मुनि को समिति की रिपोर्ट जल्द से जल्द सदन के पटल पर रखने के निर्देश दिए हैं।

Monday, September 7, 2009

पुलिस को भी लगता है डर मुर्र्दों और भूतों से

लोग भूतों की बात करने पर डरते हैं। बड़े बड़ों से पूछ लो बचपन में यही डर रात में उनके कपड़े गिले होने का कारण बन चुका होगा। अरे भई घबराइए मत आज हम कोई हॉरर थीम लेकर नहीं आए हैं। हम तो बस इतना जानना चाहते हैं कि किसी कारणवश पोस्टमार्टम रूम में जाने का मौका मिल रहा हो तो आपका रिएक्शन क्या होगा। लो छूटने लगे ना छक्के। हमने पहले ही कहा था बचपन की बता भूल जाओ तब तो नादान थे, अब बड़े हो गए हो। एक बार जा आओ न। देख लो वहां कैसे क्या होता है। जानकारी ही बढ़ेगी। देखो आधाी रात के बाद मेरे लिखने का मतलब कतई यह नहीं कि ब्लॉग के पढ़ाकूओं को डरा रहा हूं। मेरा भी सौ फीसदी मानना है जो डर गया सो मर गया, समझे न। अब तय आपको करना है डरना, यानी मरना है या मुर्र्दों से मिलने का लुत्फ लेना है। खैर छोड़ो पहले आपका डर ही मिटाया जाए। इसके लिए एक सच्ची कहानी ही बयां कर देते हैं। थोड़े समय पहले की बात है शहर के बड़े अस्पताल में एक महिला का शव पोस्टमार्टम के लिए रखा हुआ था। उसका न कोई नातेदार न कोई रिश्तेदार, ऐसे में जिसका कोई नहीं उसका ठेका पुलिस का। सो पुलिस की निगरानी में पोस्टमार्टम होना तय हो गया। पोस्टमार्टम केन्द्र में ही एक अधपगला सा मानुष अघांषित रूप से कार्यरत था। वह कोई सरकारी मुलाजिम नहीं, बस कोई काम न मिला तो लग गया झील तालाबों में डूबकर ईह लीला समाप्त करने वालों को ढोने वाला। पुलिस के बुलावे पर जाता और शव को पोस्टमार्टम केन्द्र तक लाने की जिम्मेदारी वह बखूबी निभाता। बदले में शाम की खुराक और चंद सिक्के मयस्सर हो जाते उसको। अरे हम भी कहां खो गए। महिला की बात आते हैं। वह महिला कोई साधारण न थी शहर की डॉन में नाम आता था उसका। क्या मजाल जो कोई नजर उठाकर कर तो देख ले, नजर नीचे रखकर बात करते थे मिलने वाले। उसके एक इशारे भर की देरी थी कि न जाने क्या से क्या हो जाता। दुश्मन ज्यादा दिन सांस ले सकें ऐसा मौका न देती थी वह। बेचारी मारी गई एक दिन अपने ही एक शार्गिद के हाथों। लेकिन उसका खौफ था कि पोस्टमार्टम रूम में उसके शव के पास जाने से पुलिस भी कतरा रही थी। पता है ऐसे में पुलिस की हिम्मत किसने बढ़ाई। उसी अधपगले मानुष ने। वो बोला डरो नहीं! जिंदा आदमी ही खतरनाक होता है, मुर्र्दों और भूतों से क्या डरना।

Sunday, September 6, 2009

शक शुबा मिटाना ही होगा

भारतीय थलसेना के पूर्व अध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक की सेना को परमाणु क्षमता के बारे में फिर से आश्वस्त करने की मांग जायज ही लगती है। एक पूर्व वैज्ञानिक के वर्ष 1998 के परमाणु परीक्षणों के नतीजों पर सवाल खड़ा करने के बाद तो यह और भी जरूरी हो गया है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के पूर्व वैज्ञानिक के.संथानम की ओर से 11 मई 1998 को हुए परीक्षणों को विफल बताए जाने के बाद सेना प्रमुख होने के नाते मलिक की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। कही ऐसा न हो कि खुदा न खास्ता जरूरत पडऩे पर परमाणु हथियार दगा दे जाएं।मलिक ने पूर्व रक्षा वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे.अब्दुल कलाम की बहस को अनावश्यक करार देते हुए वैज्ञानिकों को इस विवाद को स्पष्ट करने के लिए आगे आने को कहा। इतना ही नहीं उन्होंने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की टिप्पणी को एक राजनीतिक बयान करार देकर दिखा दिया है कि इस मामले में राजनीतिज्ञ कुछ न बोले तो बेहतर है। अब सवाल यह है कि क्या देश के नेता फौजियों और देशवासियों का मनोबल बनाए रखने के लिए एक और परमाणु परीक्षण करने का साहस जुटा पाएंगे।

तुम पत्नी, मां और सिर्फ मां हो....

तुम्हारे मेरे बीच के रिश्ते अब उस चादर की तरह हो गए हैं जिस पर अनगिनत पैबंद हैं। यूं भी मान सकती हो कि चादर ओझल हो चुकी है, बस पैबंद ही चादर के होने का आभास करा रहे हैं। रिश्तों के होने का यह भ्रम भी न जाने कब टूट जाए। तिल-तिल कर जोड़ा संवारा था हमने कभी यह घरबार। आज जब बच्चे बड़े हो गए हैं तो मैं और तुम बंट सी गई हो। तुमसे बच्चों का मोह नहीं छूट रहा और मैं बच्चों को अब देखना भी नहीं चाहता। इतने उलाहनों और अपमान के घंूट पीने के बावजूद तुम्हारे दिल में उनके प्रति वात्सल्य बरकरार है। यह देख कई बार तो मुझे अपने गलत होने का अहसास होने लगता है। लेकिन नहीं, मैं ही सही हूं। मैंने दुनिया देखी है। अब और नहीं सहा जाता। मानता हूं कि उम्र के इस मोड़ पर तुम्हें मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है। इस सबके बावजूद मैं तुम्हारा अपराधी बनने का साहस जुटा चुका हूं। मुझे तुमसे दूर होना ही होगा। हां तुम्हे मुझे भूलना ही होगा। तुम्हे तुम्हारे बच्चे मुबारक। मुझे अब उनसे कोई मोह नहीं। मैने अपना फर्ज निभा दिया। अंत बिछोह से होना था सो हो रहा है। तुम जब यह खत पढ़ रही होंगी तब तक शायद मैं तुमसे, इस शहर से दूर जा चुका होउंगा। घबराना मत, इस दुनिया से दूर नहीं जा रहा। तुम्हारी मांग में सिंदूर की लालिमा बरकरार रहे इसी आशा के साथ। अलविदा, अलविदा, अलविदा.....

Saturday, September 5, 2009

शिक्षक दिवस पर याद आती है वो

हर साल जब भी शिक्षक दिवस आता है तब उनकी याद ताजा हो उठती है। जब कभी मन उदासी से भर उठता है, लगता है कि हार सामने ही खड़ी तो मन में नवऊर्जा का संचारीत हो जाती है।उठो! तुममें क्षमता है। सफलता पाने की चाह रखो, असफलता से न घबराओ। मुझे पता है तुम यह कर सकते हो, तुमने अच्छा ही किया है। तुम्हारी मेहनत में कहीं कोई कमी नहीं है। सरीखे बोल अब भी कानों में गूंज उठते हैं। उम्र निरन्तर ढलान की ओर है। सब बदल चुका है। न अब मैं मैं रहा न वो वो, समय के साथ सब बिखर गया, नहीं बिखरी तो बस यादें। कालेज के दिनों में जब साथी मौज मस्ती कर रहे होते थे तो मेरा भी मन विचलित होने लगता। लेकिन जब उसे देखता तो लगता कि नहीं कोई ओर भी है जो मेरी तरह है। बस इसी समानता ने उसे मेरे और मुझे उसके नजदीक ला दिया। नजदीकियां इतनी की घर आना जाना एक सामान्य बात थी। हर सुख दुख में भागीदारी निभाने से भी परहेज नहीं रहा। इसी दौरान मेरा बीएड में चयन हो गया। अचानक ही मुझे शहर छोड़कर जाना पड़ा। जब वापस लौटा तो वो जा चुकी थी। पता चला कि केस हार जाने के कारण उसके पिता को नौकरी से बेदखल कर दिया गया था। पूरे परिवार के सामने रोजी-रोटी का संकट आन पड़ा। थक हार कर उसके पिता परिवार को लेकर फिर पंजाब लौट गए। पंजाब में कहा गए यह मुझे भी पता नहीं क्यों पहले कभी इस बारे में चर्चा ही नहीं हुई। बस तब से उनकी तलाश है। दिन, महीने और साल गुजरते जा रहे हैं, लेकिन मिलने की आस बाकी है।

लो अब भुगतो...

बीबी के ताने सुनसुनकर कान पक गए, शर्माजी ने सोचा भी न था एक छोटी सी सलाह पर जीना हराम हो जाएगा। इधर सुबह आफिस जाने की तैयार में लगे थे, उधर गृहमंत्री के सुर कुछ इस अंदाज में तान छेड़े हुए थे। आप ने ही तो कहा था इस बार पार्टी बदलकर देख लो। मेरी हाथ वाली पार्टी को वोट देने पर राहत न मिले तो कहना। लो बदल ली पार्टी। दे दिया वोट। अभी तो गिनती के दिन बीते हैं। सब्जी के भाव क्या से क्या हो गए। दाल से क्या खाक काम चलाऊं साठ-पैंसठ रुपए किलो से कम नहीं आ रही। तनख्वाह के नाम पर कहते थे इजाफा होगा। क्या हुआ! पार्टी न बदलती तो तो सब्र रहता। सब आप का किया धरा है। लो अब भुगतो। न जाने पांच साल कैसे गुजरेंगे। कहते कहते श्रीमती शर्मा रसोईघर में चली गई। बर्तनों की गूंज के बीच भी उनके बड़बड़ाने की आवाज स्पष्टï सुनाई पड़ रही थी। हमने भी भीतर जाना मुनासिब नहीं समझा। बाहर खड़े खड़े ही शर्माजी के बाहर आने का इंतजार करने लगे। मुंह लटकाए वो बाहर आए तो हालत तो ऐसी की काटो तो खून नहीं। आखिर जवाब भी क्या दें। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि पत्नी को उसका वोट अपनी पसंदीदा पार्टी को देने की सलाह इतनी भारी पड़ेगी। उनके हावभाव देखकर लग रहा था मानो सरकार की हर गलती के लिए वे खुद को ही जिम्मेदार मान रहे हैं। हमने भी उनकी दुखती रग पर हाथ धर दिया। पूछ बैठे क्या बात है, भाभीजी बड़े गुस्से में हैं। वे बोले, क्या बताऊं यार यह सब सुनते-सुनते कान पकने लगे हैं हमारे। ठीक ही तो कहती है वह। उसने गलत कुछ नहीं फरमाया। उसका उलाहना देना जायज ही तो है। गलती उससे नहीं हमसे ही हो गई। बड़ी मुश्किल से मनाया था इस बार वोट देने को। हम न उसे वोट डालने को कहते न ये दिन देखने पड़ते। बारिश के बावजूद बड़े जोश के साथ के गए थे वोट डलवाने। अब लगता है कि शादी के बाद दूसरी सबसे बड़ी गलती यही हुई है। तभी घर के भीतर से आवाज आई। अजी सुनते हो! टिफिन ले जाना मत भूलना। गरम-गरम रोटियां रख दी हैं। सब्जी-दाल तो है नहीं, अचार से काम चला लेना।

यह कीड़ा हमेशा रहना चाहिए...

हमें क्या पता था कि छींकना इतना भारी पड़ जाएगा। अपने ही घर परिवार में अछूत हो गए। पता होता तो इस ना मुराद छींक का आने से पहले दम घोंट डालते। खैर अब जो हुआ सो हुआ। अब करें भी तो क्या। चुपचाप नकाबपोशों की तरह मुंह पर कपड़ा बांधे घर में ही पड़े हैं। न हम भादों की बारिश में भीगने का मजा लेते न जुकाम होता और न फिर छींक ही आती। कोई हमारी सुनने को तैयार नहीं। बस आ गए शक के दायरे में हम भी। मुआ यह स्वाइन फ्लू बिना हुए ही हमारी जान लेने को उतारू है। घर अब घर नहीं किसी बंगाली डाक्टर का दवाखाना हो गया। जिसे देखो हमें कोई न कोई नुस्खा दे जाता है। क्या बताए सात फेरे लेकर सात जनम तक साथ निभाने का वचन देने वाली पत्नी भी सुनने को तैयार नहीं। कहती है पहले ठीक हो जाओ फिर बात करेंगे। जुल्म की हद तो तब हो गई जब उसने बेडरूम की जगह बाथरूम के बाहर खाली पड़े बरामदे में खटिया डाल दी। स्वाइन फ्लू के भूत का भय हर आम-ओ-खास को परेशान किए हुए है। वहीं मुन्ना की तो पौ बारह हो गई है। वह बीते चार दिन से घर में धमाल मचाए हुए है। उसे नहीं पता स्वाइन फ्लू क्या होता है वह तो बस इतना जानता है स्वाइन फ्लू वह कीड़ा (वायरस) है जो स्कूल की छुट्टी करा देता है। यह कीड़ा हमेशा रहना चाहिए।

आज का काम कल पर छोड़ो...

दुनिया भर में आज जश्ने लेट लतीफी यानी 'बी लेट फोर समथिंग डेÓ मनाया जा रहा है, ऐसे में हम पीछे रहने वाले नहीं। हम ठहरे ठेठ हिन्दुस्तानी। विश्व गुरु का तमगा हमें यू ही थोड़े ही न मिल गया। हमारा तो हर दिन 'आज करे सो काल कर, काल करे सो परसों वाली तर्ज पर कटता है। काम को निपटाने की जल्दी न करें हो जाएगा। जीवन भर काम ही तो करना है। फिर भी मन न माने तो यह भूल जाइए कि आज हमें क्या-क्या करना है। टाइम क्या हो रहा है। या घड़ी को ही बंद कर दें। पीछे कर दें। लेटलतीफियों की नजर में काम से ज्यादा जरूरी आराम है। काम को टाला जा सकता है आराम को नहीं। ऐसा करने से तनाव नहीं होता। हम बताते जाएं कि इस दिवस की शुरुआत 'प्रोक्रेस्टिनेटर्स क्लब आफ अमरीका ने की थी जिसका नारा है 'जिस काम को आप कल पर टाल सकते हैं उसे आज कदापि न करें।

सबसे बड़ा मुफलिस मैं...

उस गली से मैं लगभग रोज ही गुजरता। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि मेरी नजर गली के छोर पर बैठी रहने वाली बुढिय़ा पर न ठहरी हो। फटे और मैले कुचैले कपड़ों से तन ढांपे वह हर आने जाने वाले की तरफ बड़ी आशा भरी नजर से देखती। उम्र ढलने के कारण शरीर में इतनी जान भी तो नहीं थी कि हाथ पसार कर किसी से कुछ मांग सके। हमेशा की तरह उस दिन भी मैं गली से गुजरा। गली का वह छोर भी आ गया। मैने देखा कि वहां लोगों की भीड़ जमा है। भीड़ के कारण मेरी नजर बुढिय़ा पर नहीं गई और मै आगे बढ़ गया। शाम को फिर लौटा तो गली के उसी छोर पर निगाह ठहर गई। वहां सन्नाटा पसरा था। बुढिय़ा कहीं नजर नहीं आई। कदम बोझील से आगे बढ़ते गए। न जाने क्यों एक अजीब सी बैचनी महसूस कर रहा था। वापस मुड़ा और उस जगह आ गया जहां बुढिय़ा बैठा करती थी। पूछने पर चाय की थड़ी वाले ने बताया साहब बुढिय़ा तो स्वर्ग सिधार गई है। जैसे तैसे घर आया। रात भर नींद नहीं आई। रह रहकर मन में एक ही विचार आ रहा था अरे! सबसे बड़ा मुफलिस तो मै हूं, एक बार भी बुढिय़ा की सुध लेने का साहस नहीं जुटा पाया। यह वाकया अब भी याद करता हूं तो मन बैचेन हो उठता है। :विजय सिंह

अमृतमयी बूंद.....


पानी की हर एक बूंद जीवन के समान ही तो है। एक बूंद से अंकुरित हो जाता है बीज। मुरझाई वनस्पति में फुंक जाती है जान। मरुभूमि के प्यासे होठों को जीवन का अहसास करा जाती है बूंद। बूंद-बूंद से ही तो भरता है गागर और सागर। इसे सहेजने से संवरेगी यह धरा, जीवन होगा दीर्घकालिक। नभ में बादलों के घिरते ही नाच उठता है मयूर, सुनाई पडऩे लगती है कोयल की कूक। गूंजने लगता है पक्षियों का कलरव। फिर हम क्यों पड़े रहना चाहते हैं निश्चेतनावस्था में। देखो! जल की मोती सी चमकती एक बंूद ठहर गई है घास की कोर पर। धरती में समा जाने से पहले कर रही है अठखेलियां। आओ हम सब प्रकृति की दयालुता का आनंद उठाएं। देखो बदरा घिर आए हैं। शीतल बयार भी चलने लगी। आओ मिलकर भीगने का लुत्फ उठाएं, यह पल यह क्षण छूट न जाए। :विजय सिंह

एक सिलसिला जो नहीं थमेगा....

अबाध गति से हो रहा तकनीकी विकास हमारी कई सांस्कृतिक परम्पराओं के विलीन होने का कारण बन रहा है। खासकर संचार के क्षेत्र में नित नई क्रांति ने तो भूचाल सा लाया हुआ है। विकास की इस अंधी दौड़ में हम बहुतेरे सांस्कृतिक मूल्यों पीछे छोड़ते जा रहे हैं। संवेदनाए शून्य होती जा रही है। मशीनी युग का आवरण इतना अधिक गहराता जा रहा है कि मानवीय संसाधन गौण लगने लगे हैं। कम में अधिक का पाने का जुनून सिर पर सवार है। हर कार्य लाभ और हानि को तौल कर करने की बढ़ रही वृत्ति स्वार्थपरायणता को बढ़ा दे रही है। हां, विकास लाजमी है लेकिन इसका पैमाना भी तय होना जरूरी हो गया है। विकास के नाम पर कही हम अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत, जीवन मूल्यों एवं संवेदनाओं से किनारा तो नहीं कर रहे, यह भी देखना होगा। बदलाव समय की मांग है, परिवर्तन प्रकृति का नियम भी। लेकिन यह सब तय अनुपात में हो तो लाभकारी सिद्ध होगा इसमें कोई संदेह नहीं। परिवर्तन और विकास जब हमारे सामाजिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगे तो हमे सतर्क हो जाना चाहिए। घर, परिवार, समाज, मित्र, सम्बंध सरीखे रिश्ते इस विकास की बयार में अपना वजूद खोने लगे तो कुछ देर रुकें, सोचे, फिर उचित निर्णय लेकर ही आगे बढ़ें। सवाल इतनाभर है कि हम अपनों को कितना समय दे रहे हैं। स्वयं और परिवार को सम्पन्नता की ओर ले जाने की कोशिशों में हम मशीन तो नहीं होते जा रहे। हालांकि अब कनफूसिया (मोबाइल, टेलीफोन) के जरिए पल भर में कहीं भी संदेश देने और पाने की सुविधा हो गई। लेकिन किसी दिन समय निकाल कर सोचें आपने अपने किसी दूर निवास करने वाले परिजन, मित्र, सम्बंधी को अंतिम बार कब पत्र लिखा था। या अंतिम बार कब कोई परिवारिक पत्र मिला था। इस दौरान क्या एक भी पारिवारिक पत्र स्मृति के रूप में आप संजो कर रख सकें हैं। पत्र लिखने और पाने का वह सुखद अहसास, स्नेह, आत्मीयता, अपनापन क्या मोबाइल और टेलीफोन पर बात कर मिल पाता है। इस ब्लॉग के जरिए आप लोगों के साथ बतीयाने का अकिंचन प्रयास का यह सिलसिला अब नहीं थमने वाला। मेरे लिए यह एक मिशन है। मैं न आप लोगों को भूलंगा और न ही आप मुझे भूल पाए ऐसा होने दूंगा। ईश्वर से इतनी ही गुजारिश है कि लिखने लिखाने के इस यज्ञ की ज्योत निरंतर प्रज्वलित रहे। आपका शुभेच्छु: विजय सिंह

Friday, September 4, 2009

water droups are showing just like necklace

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