Wednesday, November 11, 2009
सभी कर्मचारी सच्चे
Saturday, October 31, 2009
धमाकों के धुंए से बदरंग हुई गुलाबी नगरी
Friday, October 23, 2009
प्लीज मुझे इन सवालों के जवाब दें
2. लोग मरने के लिए विषाक्त पदार्थ या जहर ही क्यों खाते हैं मिठाई क्यो नहीं खाते।
3. लोग दूसरों का बुरा करने के लिए गलत तरीका ही क्यों अपनाते हैं प्रेम से क्यों नहीं मारते।
4. धरती पर भगवान को पाने की लालसा होती है तो लोग स्वर्ग से नीचे ही क्यों आते हैं।
5. किसी ऐसे शख्स का नाम बताएं जो स्वर्ग की बजाय नरक गया हो।
6. किसी ऐसे प्राणी का नाम बताएं जो मौत से कभी न घबराता हो।
सादर...यमदूत
Monday, October 12, 2009
हम क्या कर रहे नहीं पता
Friday, October 9, 2009
यह नोबेल पुरस्कार बला क्या है
Monday, October 5, 2009
योग्यता जितना घमण्ड तो होना ही चाहिए
Saturday, October 3, 2009
Sunday, September 27, 2009
रावण का दहन एक दिन पहले
Sunday, September 20, 2009
विश्व अलजाइमर्स दिवस आज
ठहाके लगाना तो दूर, हंसना भी भूल गए
Saturday, September 19, 2009
मेरा बेटा भी बहुत शरारती है
Wednesday, September 16, 2009
मैं गांधी तो नहीं
Sunday, September 13, 2009
वह तो सिर्फ जेबतराश बाकि तो लुटेरे हैं
Saturday, September 12, 2009
ईश्वर है या नहीं इसमें नहीं उलझे, बस विश्वास करें
'हे परमपिता, यद्यपि मैने आज तक आपको पुस्तकों, संतों एवं शास्त्रों तथा वचनों के माध्यम से जाना है, किन्तु आपकी व्यक्तिगत अनुभूति नहीं की। मेरे मन की अभिलाषा है कि आपको आपके वास्तविक रूप में अनुभूत कर सकूं। हे पिता शीघ्र ही मुझे अनुभूति कराएं।'
Friday, September 11, 2009
कड़की में काम आते टोटके
यूं टोटकों के बारे में हर आम-ओ-खास को जानकारी रहती है। हर कोई बचना चाहता है इनसे। न जाने क्या अला बला पीछे लग जाए। खासकर चौराहों पर तो बड़े ध्यान से निकलना पड़ता है। उस पर रात हो तो ये टोटके किसी भूत पिशाच से कम नहीं लगते। दूर से नजर पड़ जाए तो रास्ता बदल लेने से गुरेज नहीं करते लोग। बहरहाल हम यहां टोटकों का परिचय कराने के मूड में नहीं हैं। हम तो बस इतना बताना चाहते हैं टोटके औरों के लिए भले ही बुरे-भले होते हो लेकिन हमारे लिए तो कड़की के दिनों में बड़े लाभकारी साबित हुए हैं।टोटके लाभकारी कैसे बने इसकी दास्तां भी कुछ कम रोचक नहीं हैं। हमें यह नुस्खा करीब दस-बार साल पहले विरासत में मिला था। लिहाजा इसे आगे बढ़ाने का प्रयास भर कर रहे हैं। बात तब कि है जब हम कॉलेज के दिनों में पढ़ाई के साथ-साथ एक ट्रेडिल पर छपने वाले वाले छोटे से अखबार के लिए भी काम किया करते थे। तनख्वाह के नाम पर कभी कभार बख्शीस की तरह जेब खर्च मिल जाया करता था। ऐसा नहीं है कि सीनियर्स कोई मोटी तनख्वाह पाते हों, उनकी भी हालत काम चलाऊ से ज्यादा हमे कभी नजर नहीं आई। हमेशा की तरह गर्मी की एक रात सीनियर्स गपशप में मशगूल थे। तभी किसी ने शिकंजी की बात छेड़ दी। बात-बात में सभी का मन हो आया कि आज शिकंजी ही पिएंगे। रात के बारह बज रहे हैं ऐसे में शिकंजी कहां मिलने वाली। तभी हमें एक सीनियर साथी ने कहा जाओ जरा आस-पास के चौराहों का फेरा लगा आओ। देखना कहीं टोटके रखे हो तो उलट पलट कर उन्हें देख लेना। एकआध नींबू तो मिल ही जाएगा। टोटके का नाम सुनते ही हमारे रोंगटे खड़े हो गए। पर क्या करें बड़ों का आदेश मानना ही था, एक और जूनियर साथ को साथ लेकर चल दिए टोटकों की खोज में। पहले एक चौराहे पहुंचे, टोटके को देखते ही घिग्घी बंध गई। जैसे तैसे टोटके को टटोला तो उसमें लाल कपड़े में बंधे दो नींबू साथ ही सवा रुपए भी मिल गए। लौटे तो सीनियर्स ने पूछा नींबू लाए हो। हमारा जवाब हां में था। उन्होंने नींबू निचोड़े और शिकंजी तैयार। बस उस दिन की घटना ने हमारे भाग्य जगा दिए। गर्मी में रात बिरात कभी शिकंजी की जरूरत हो तो चौराहे सलामत। चाय के लिए जेब में चव्वनी न हो तो चौराहों का फेरा।
Thursday, September 10, 2009
दिल्ली के रामलीला वालों से हमदर्दी
भई हमें तो दिल्ली की कांग्रेस सरकार के नए फरमान में भी राजनीति की बू आने लगी है। सत्ता पर काबिज सरकार शायद यह नहीं चाहती की रामलीला के नाम पर लोग राम को याद करें। राम का नाम पूरे नौ दिन तक लोगों की जुबां पर होगा तो इसका लाभ प्रतिपक्षी पार्टी को मिलता है। इससे राजनीतिक वातावरण में राम समर्थकों की पार्टी की रेंटिंग बढ़ जाती है। प्रतिपक्षी पार्टी के नेता फीता काटने के बहाने ही अपना जनाधार बढ़ाने के लिए वहां पहुंच जाते हैं। यह स्थिति सत्ताधारी पार्टी के लिए किसी हाजमा खराब करने से कम नहीं होती। उसका बस चलता तो वह तो पूरी रामलीला ही प्रतिबंधित कर देती। यानी कि न रहे बांस न बजे बांसुरी। संभल जाओ रामलीला वालों! अभी पहला तीर चला है। आगे-आगे देखो होता है क्या। दिल्ली वालों मुझे आपसे से पूरी हमदर्दी है। हो भी क्यो नहीं, जीवन के करीब 18 महीने मैने भी दिल्ली में बिताए हैं। मेरे योग्य सेवा हो तो बताना। रामजी आपकी भली करें।
Wednesday, September 9, 2009
यमलोक में हाहाकार
Monday, September 7, 2009
पुलिस को भी लगता है डर मुर्र्दों और भूतों से
लोग भूतों की बात करने पर डरते हैं। बड़े बड़ों से पूछ लो बचपन में यही डर रात में उनके कपड़े गिले होने का कारण बन चुका होगा। अरे भई घबराइए मत आज हम कोई हॉरर थीम लेकर नहीं आए हैं। हम तो बस इतना जानना चाहते हैं कि किसी कारणवश पोस्टमार्टम रूम में जाने का मौका मिल रहा हो तो आपका रिएक्शन क्या होगा। लो छूटने लगे ना छक्के। हमने पहले ही कहा था बचपन की बता भूल जाओ तब तो नादान थे, अब बड़े हो गए हो। एक बार जा आओ न। देख लो वहां कैसे क्या होता है। जानकारी ही बढ़ेगी। देखो आधाी रात के बाद मेरे लिखने का मतलब कतई यह नहीं कि ब्लॉग के पढ़ाकूओं को डरा रहा हूं। मेरा भी सौ फीसदी मानना है जो डर गया सो मर गया, समझे न। अब तय आपको करना है डरना, यानी मरना है या मुर्र्दों से मिलने का लुत्फ लेना है। खैर छोड़ो पहले आपका डर ही मिटाया जाए। इसके लिए एक सच्ची कहानी ही बयां कर देते हैं। थोड़े समय पहले की बात है शहर के बड़े अस्पताल में एक महिला का शव पोस्टमार्टम के लिए रखा हुआ था। उसका न कोई नातेदार न कोई रिश्तेदार, ऐसे में जिसका कोई नहीं उसका ठेका पुलिस का। सो पुलिस की निगरानी में पोस्टमार्टम होना तय हो गया। पोस्टमार्टम केन्द्र में ही एक अधपगला सा मानुष अघांषित रूप से कार्यरत था। वह कोई सरकारी मुलाजिम नहीं, बस कोई काम न मिला तो लग गया झील तालाबों में डूबकर ईह लीला समाप्त करने वालों को ढोने वाला। पुलिस के बुलावे पर जाता और शव को पोस्टमार्टम केन्द्र तक लाने की जिम्मेदारी वह बखूबी निभाता। बदले में शाम की खुराक और चंद सिक्के मयस्सर हो जाते उसको। अरे हम भी कहां खो गए। महिला की बात आते हैं। वह महिला कोई साधारण न थी शहर की डॉन में नाम आता था उसका। क्या मजाल जो कोई नजर उठाकर कर तो देख ले, नजर नीचे रखकर बात करते थे मिलने वाले। उसके एक इशारे भर की देरी थी कि न जाने क्या से क्या हो जाता। दुश्मन ज्यादा दिन सांस ले सकें ऐसा मौका न देती थी वह। बेचारी मारी गई एक दिन अपने ही एक शार्गिद के हाथों। लेकिन उसका खौफ था कि पोस्टमार्टम रूम में उसके शव के पास जाने से पुलिस भी कतरा रही थी। पता है ऐसे में पुलिस की हिम्मत किसने बढ़ाई। उसी अधपगले मानुष ने। वो बोला डरो नहीं! जिंदा आदमी ही खतरनाक होता है, मुर्र्दों और भूतों से क्या डरना।
Sunday, September 6, 2009
शक शुबा मिटाना ही होगा
तुम पत्नी, मां और सिर्फ मां हो....
Saturday, September 5, 2009
शिक्षक दिवस पर याद आती है वो
लो अब भुगतो...
यह कीड़ा हमेशा रहना चाहिए...
हमें क्या पता था कि छींकना इतना भारी पड़ जाएगा। अपने ही घर परिवार में अछूत हो गए। पता होता तो इस ना मुराद छींक का आने से पहले दम घोंट डालते। खैर अब जो हुआ सो हुआ। अब करें भी तो क्या। चुपचाप नकाबपोशों की तरह मुंह पर कपड़ा बांधे घर में ही पड़े हैं। न हम भादों की बारिश में भीगने का मजा लेते न जुकाम होता और न फिर छींक ही आती। कोई हमारी सुनने को तैयार नहीं। बस आ गए शक के दायरे में हम भी। मुआ यह स्वाइन फ्लू बिना हुए ही हमारी जान लेने को उतारू है। घर अब घर नहीं किसी बंगाली डाक्टर का दवाखाना हो गया। जिसे देखो हमें कोई न कोई नुस्खा दे जाता है। क्या बताए सात फेरे लेकर सात जनम तक साथ निभाने का वचन देने वाली पत्नी भी सुनने को तैयार नहीं। कहती है पहले ठीक हो जाओ फिर बात करेंगे। जुल्म की हद तो तब हो गई जब उसने बेडरूम की जगह बाथरूम के बाहर खाली पड़े बरामदे में खटिया डाल दी। स्वाइन फ्लू के भूत का भय हर आम-ओ-खास को परेशान किए हुए है। वहीं मुन्ना की तो पौ बारह हो गई है। वह बीते चार दिन से घर में धमाल मचाए हुए है। उसे नहीं पता स्वाइन फ्लू क्या होता है वह तो बस इतना जानता है स्वाइन फ्लू वह कीड़ा (वायरस) है जो स्कूल की छुट्टी करा देता है। यह कीड़ा हमेशा रहना चाहिए।