Saturday, September 5, 2009
सबसे बड़ा मुफलिस मैं...
उस गली से मैं लगभग रोज ही गुजरता। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि मेरी नजर गली के छोर पर बैठी रहने वाली बुढिय़ा पर न ठहरी हो। फटे और मैले कुचैले कपड़ों से तन ढांपे वह हर आने जाने वाले की तरफ बड़ी आशा भरी नजर से देखती। उम्र ढलने के कारण शरीर में इतनी जान भी तो नहीं थी कि हाथ पसार कर किसी से कुछ मांग सके। हमेशा की तरह उस दिन भी मैं गली से गुजरा। गली का वह छोर भी आ गया। मैने देखा कि वहां लोगों की भीड़ जमा है। भीड़ के कारण मेरी नजर बुढिय़ा पर नहीं गई और मै आगे बढ़ गया। शाम को फिर लौटा तो गली के उसी छोर पर निगाह ठहर गई। वहां सन्नाटा पसरा था। बुढिय़ा कहीं नजर नहीं आई। कदम बोझील से आगे बढ़ते गए। न जाने क्यों एक अजीब सी बैचनी महसूस कर रहा था। वापस मुड़ा और उस जगह आ गया जहां बुढिय़ा बैठा करती थी। पूछने पर चाय की थड़ी वाले ने बताया साहब बुढिय़ा तो स्वर्ग सिधार गई है। जैसे तैसे घर आया। रात भर नींद नहीं आई। रह रहकर मन में एक ही विचार आ रहा था अरे! सबसे बड़ा मुफलिस तो मै हूं, एक बार भी बुढिय़ा की सुध लेने का साहस नहीं जुटा पाया। यह वाकया अब भी याद करता हूं तो मन बैचेन हो उठता है। :विजय सिंह
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kabhi kabhi mere santh bhi aisa hi hota hay.
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