Sunday, September 20, 2009
ठहाके लगाना तो दूर, हंसना भी भूल गए
इंसान की उम्र जैसे-जैसे ढलान की ओर जाती है उसकी कई आदतों, आचार-व्यवहार व गुणों में परिवर्तन होता जाता है। उम्र की इसी ढलान में खोती जाती है उसकी खुशी। यूं कहने को तो कभी कभार चेहरा खिला और होठों पर मुस्कुराहट का आभास नजर आ जाता है। लेकिन इस सबमें नैसर्गिगता की बजाय कृत्रिमता का प्रतिशत बढ़ जाता है। गाहे बगाहे ठहाके लगाना तो दूर की बात रही खिलखिलाकर कर हंसना भी वह भूल सा गया है। कभी हंसते-हंसते पेट में बल पड़ जाया करते थे वे दिन अब लद गए। अब तो ठहाके के लिए भी प्रशिक्षण केन्द्रों में जाकर अभ्यास की जरूरत पडऩे लगी है। हम भी हंसना भूल ही गए थे, लेकिन आज जमकर हंसे, मन तो ठहाके लगाने का था पर शरीर ने साथ नहीं दिया। पेट और सीने में दर्द होने लगा। हंसी थमी तो फिर उसी नीरसता के वातावरण में खुद को पाया।
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