Saturday, September 5, 2009

एक सिलसिला जो नहीं थमेगा....

अबाध गति से हो रहा तकनीकी विकास हमारी कई सांस्कृतिक परम्पराओं के विलीन होने का कारण बन रहा है। खासकर संचार के क्षेत्र में नित नई क्रांति ने तो भूचाल सा लाया हुआ है। विकास की इस अंधी दौड़ में हम बहुतेरे सांस्कृतिक मूल्यों पीछे छोड़ते जा रहे हैं। संवेदनाए शून्य होती जा रही है। मशीनी युग का आवरण इतना अधिक गहराता जा रहा है कि मानवीय संसाधन गौण लगने लगे हैं। कम में अधिक का पाने का जुनून सिर पर सवार है। हर कार्य लाभ और हानि को तौल कर करने की बढ़ रही वृत्ति स्वार्थपरायणता को बढ़ा दे रही है। हां, विकास लाजमी है लेकिन इसका पैमाना भी तय होना जरूरी हो गया है। विकास के नाम पर कही हम अपनी मूल सांस्कृतिक विरासत, जीवन मूल्यों एवं संवेदनाओं से किनारा तो नहीं कर रहे, यह भी देखना होगा। बदलाव समय की मांग है, परिवर्तन प्रकृति का नियम भी। लेकिन यह सब तय अनुपात में हो तो लाभकारी सिद्ध होगा इसमें कोई संदेह नहीं। परिवर्तन और विकास जब हमारे सामाजिक जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगे तो हमे सतर्क हो जाना चाहिए। घर, परिवार, समाज, मित्र, सम्बंध सरीखे रिश्ते इस विकास की बयार में अपना वजूद खोने लगे तो कुछ देर रुकें, सोचे, फिर उचित निर्णय लेकर ही आगे बढ़ें। सवाल इतनाभर है कि हम अपनों को कितना समय दे रहे हैं। स्वयं और परिवार को सम्पन्नता की ओर ले जाने की कोशिशों में हम मशीन तो नहीं होते जा रहे। हालांकि अब कनफूसिया (मोबाइल, टेलीफोन) के जरिए पल भर में कहीं भी संदेश देने और पाने की सुविधा हो गई। लेकिन किसी दिन समय निकाल कर सोचें आपने अपने किसी दूर निवास करने वाले परिजन, मित्र, सम्बंधी को अंतिम बार कब पत्र लिखा था। या अंतिम बार कब कोई परिवारिक पत्र मिला था। इस दौरान क्या एक भी पारिवारिक पत्र स्मृति के रूप में आप संजो कर रख सकें हैं। पत्र लिखने और पाने का वह सुखद अहसास, स्नेह, आत्मीयता, अपनापन क्या मोबाइल और टेलीफोन पर बात कर मिल पाता है। इस ब्लॉग के जरिए आप लोगों के साथ बतीयाने का अकिंचन प्रयास का यह सिलसिला अब नहीं थमने वाला। मेरे लिए यह एक मिशन है। मैं न आप लोगों को भूलंगा और न ही आप मुझे भूल पाए ऐसा होने दूंगा। ईश्वर से इतनी ही गुजारिश है कि लिखने लिखाने के इस यज्ञ की ज्योत निरंतर प्रज्वलित रहे। आपका शुभेच्छु: विजय सिंह

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