Sunday, September 13, 2009

वह तो सिर्फ जेबतराश बाकि तो लुटेरे हैं

यह वाक्या रविवार रात करीब तीन बजे का है। चाय पीने के लिए कार्यालय के सामने स्थित बच्चों के सरकारी अस्पताल की केंटिन तक गए थे। परिसर के भीतर प्रवेश किया ही था कि शोर सुनाई दिया। पकड़ो, पकड़ो भागने न पाए। आस-पास सोए लोग भी जग गए। पकड़ लिया गया वो बेचारा। टूट पड़े कई लोग उस पर। जेब से कुछ रुपए भी निकल आए। वह कोई और नहीं, एक जेबतराश था जो रात के सन्नाटे में शिकार पर हाथ साफ करता था। इस सबके बीच एक बात हमें अलहदा नजर आई। जेबतराश की जेब से रुपए भले ही कुल जमा तीन-चार सौ निकले हों, लेकिन यह चिल्लाने वाले कि मेरी भी जेब से रुपए गायब है कहने वाले बीसियों हो गए। कोई बोला पांच सौ तो कोई हजार के पार बताने लगा। हम समझ नहीं पा रहे थे कि जेबतराश तराश के पास कुल जमा तीन चार सौ रुपए निकले तो बाकि लोगों के रुपओं पर किसने हाथ साफ कर दिया। खैर हम आगे बढ़ गए। चाय कि दो चार चुस्की ही ली थी कि इसी बीच पास की कुर्सी पर आकर दो सज्जन बैठ गए। वे आपस में कुछ बतिया रहे थे। पहले तो हमरा ध्यान उनकी तरफ नहीं गया लेकिन जैसे ही जेबतराश वाली घटना उनकी जुबां पर आई हमारे कान खड़े हो गए। उनमें से एक बोल रहा था, अरे यार उसकी जेब से माल ही कम निकला नहीं तो हमारे भी वारे-न्यारे हो जाते। हल्ला सुनकर पहुंचने में कुछ देरी हो गई थी। बस! माजरा हमारी समझ में आ गया। वो बेचारा तो एक जेबतराश था, भीड़ में कई ऐसे सफेदपोश शामिल थे, जो जेब सलामत होने के बावजूद जेब कटने का शोर मचाने में आगे थे। उन्हें आशा थी कि जेबतराश से बरामद रुपओं में से उनके हाथ भी कुछ लग जाता। बहरहाल जेबतराश भी यह सोच रहा होगा कि जब उसने इतने लोगों की जेब ही साफ नहीं की तो फिर कौन यह कारनामा कर गया। आज तो उसके अलावा और कोई साथी यहां नहीं आने वाला था।

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