Saturday, September 5, 2009

लो अब भुगतो...

बीबी के ताने सुनसुनकर कान पक गए, शर्माजी ने सोचा भी न था एक छोटी सी सलाह पर जीना हराम हो जाएगा। इधर सुबह आफिस जाने की तैयार में लगे थे, उधर गृहमंत्री के सुर कुछ इस अंदाज में तान छेड़े हुए थे। आप ने ही तो कहा था इस बार पार्टी बदलकर देख लो। मेरी हाथ वाली पार्टी को वोट देने पर राहत न मिले तो कहना। लो बदल ली पार्टी। दे दिया वोट। अभी तो गिनती के दिन बीते हैं। सब्जी के भाव क्या से क्या हो गए। दाल से क्या खाक काम चलाऊं साठ-पैंसठ रुपए किलो से कम नहीं आ रही। तनख्वाह के नाम पर कहते थे इजाफा होगा। क्या हुआ! पार्टी न बदलती तो तो सब्र रहता। सब आप का किया धरा है। लो अब भुगतो। न जाने पांच साल कैसे गुजरेंगे। कहते कहते श्रीमती शर्मा रसोईघर में चली गई। बर्तनों की गूंज के बीच भी उनके बड़बड़ाने की आवाज स्पष्टï सुनाई पड़ रही थी। हमने भी भीतर जाना मुनासिब नहीं समझा। बाहर खड़े खड़े ही शर्माजी के बाहर आने का इंतजार करने लगे। मुंह लटकाए वो बाहर आए तो हालत तो ऐसी की काटो तो खून नहीं। आखिर जवाब भी क्या दें। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि पत्नी को उसका वोट अपनी पसंदीदा पार्टी को देने की सलाह इतनी भारी पड़ेगी। उनके हावभाव देखकर लग रहा था मानो सरकार की हर गलती के लिए वे खुद को ही जिम्मेदार मान रहे हैं। हमने भी उनकी दुखती रग पर हाथ धर दिया। पूछ बैठे क्या बात है, भाभीजी बड़े गुस्से में हैं। वे बोले, क्या बताऊं यार यह सब सुनते-सुनते कान पकने लगे हैं हमारे। ठीक ही तो कहती है वह। उसने गलत कुछ नहीं फरमाया। उसका उलाहना देना जायज ही तो है। गलती उससे नहीं हमसे ही हो गई। बड़ी मुश्किल से मनाया था इस बार वोट देने को। हम न उसे वोट डालने को कहते न ये दिन देखने पड़ते। बारिश के बावजूद बड़े जोश के साथ के गए थे वोट डलवाने। अब लगता है कि शादी के बाद दूसरी सबसे बड़ी गलती यही हुई है। तभी घर के भीतर से आवाज आई। अजी सुनते हो! टिफिन ले जाना मत भूलना। गरम-गरम रोटियां रख दी हैं। सब्जी-दाल तो है नहीं, अचार से काम चला लेना।

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