Sunday, September 6, 2009

तुम पत्नी, मां और सिर्फ मां हो....

तुम्हारे मेरे बीच के रिश्ते अब उस चादर की तरह हो गए हैं जिस पर अनगिनत पैबंद हैं। यूं भी मान सकती हो कि चादर ओझल हो चुकी है, बस पैबंद ही चादर के होने का आभास करा रहे हैं। रिश्तों के होने का यह भ्रम भी न जाने कब टूट जाए। तिल-तिल कर जोड़ा संवारा था हमने कभी यह घरबार। आज जब बच्चे बड़े हो गए हैं तो मैं और तुम बंट सी गई हो। तुमसे बच्चों का मोह नहीं छूट रहा और मैं बच्चों को अब देखना भी नहीं चाहता। इतने उलाहनों और अपमान के घंूट पीने के बावजूद तुम्हारे दिल में उनके प्रति वात्सल्य बरकरार है। यह देख कई बार तो मुझे अपने गलत होने का अहसास होने लगता है। लेकिन नहीं, मैं ही सही हूं। मैंने दुनिया देखी है। अब और नहीं सहा जाता। मानता हूं कि उम्र के इस मोड़ पर तुम्हें मेरी सबसे ज्यादा जरूरत है। इस सबके बावजूद मैं तुम्हारा अपराधी बनने का साहस जुटा चुका हूं। मुझे तुमसे दूर होना ही होगा। हां तुम्हे मुझे भूलना ही होगा। तुम्हे तुम्हारे बच्चे मुबारक। मुझे अब उनसे कोई मोह नहीं। मैने अपना फर्ज निभा दिया। अंत बिछोह से होना था सो हो रहा है। तुम जब यह खत पढ़ रही होंगी तब तक शायद मैं तुमसे, इस शहर से दूर जा चुका होउंगा। घबराना मत, इस दुनिया से दूर नहीं जा रहा। तुम्हारी मांग में सिंदूर की लालिमा बरकरार रहे इसी आशा के साथ। अलविदा, अलविदा, अलविदा.....

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