Monday, September 7, 2009

पुलिस को भी लगता है डर मुर्र्दों और भूतों से

लोग भूतों की बात करने पर डरते हैं। बड़े बड़ों से पूछ लो बचपन में यही डर रात में उनके कपड़े गिले होने का कारण बन चुका होगा। अरे भई घबराइए मत आज हम कोई हॉरर थीम लेकर नहीं आए हैं। हम तो बस इतना जानना चाहते हैं कि किसी कारणवश पोस्टमार्टम रूम में जाने का मौका मिल रहा हो तो आपका रिएक्शन क्या होगा। लो छूटने लगे ना छक्के। हमने पहले ही कहा था बचपन की बता भूल जाओ तब तो नादान थे, अब बड़े हो गए हो। एक बार जा आओ न। देख लो वहां कैसे क्या होता है। जानकारी ही बढ़ेगी। देखो आधाी रात के बाद मेरे लिखने का मतलब कतई यह नहीं कि ब्लॉग के पढ़ाकूओं को डरा रहा हूं। मेरा भी सौ फीसदी मानना है जो डर गया सो मर गया, समझे न। अब तय आपको करना है डरना, यानी मरना है या मुर्र्दों से मिलने का लुत्फ लेना है। खैर छोड़ो पहले आपका डर ही मिटाया जाए। इसके लिए एक सच्ची कहानी ही बयां कर देते हैं। थोड़े समय पहले की बात है शहर के बड़े अस्पताल में एक महिला का शव पोस्टमार्टम के लिए रखा हुआ था। उसका न कोई नातेदार न कोई रिश्तेदार, ऐसे में जिसका कोई नहीं उसका ठेका पुलिस का। सो पुलिस की निगरानी में पोस्टमार्टम होना तय हो गया। पोस्टमार्टम केन्द्र में ही एक अधपगला सा मानुष अघांषित रूप से कार्यरत था। वह कोई सरकारी मुलाजिम नहीं, बस कोई काम न मिला तो लग गया झील तालाबों में डूबकर ईह लीला समाप्त करने वालों को ढोने वाला। पुलिस के बुलावे पर जाता और शव को पोस्टमार्टम केन्द्र तक लाने की जिम्मेदारी वह बखूबी निभाता। बदले में शाम की खुराक और चंद सिक्के मयस्सर हो जाते उसको। अरे हम भी कहां खो गए। महिला की बात आते हैं। वह महिला कोई साधारण न थी शहर की डॉन में नाम आता था उसका। क्या मजाल जो कोई नजर उठाकर कर तो देख ले, नजर नीचे रखकर बात करते थे मिलने वाले। उसके एक इशारे भर की देरी थी कि न जाने क्या से क्या हो जाता। दुश्मन ज्यादा दिन सांस ले सकें ऐसा मौका न देती थी वह। बेचारी मारी गई एक दिन अपने ही एक शार्गिद के हाथों। लेकिन उसका खौफ था कि पोस्टमार्टम रूम में उसके शव के पास जाने से पुलिस भी कतरा रही थी। पता है ऐसे में पुलिस की हिम्मत किसने बढ़ाई। उसी अधपगले मानुष ने। वो बोला डरो नहीं! जिंदा आदमी ही खतरनाक होता है, मुर्र्दों और भूतों से क्या डरना।

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